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केस कोर्ट में है…क्या विदेश जाना बंद? पासपोर्ट बचेगा या जाएगा? सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

प्रस्तावना: आम नागरिकों से जुड़ा अहम सवाल

भारत में लाखों नागरिक ऐसे हैं जिनके खिलाफ किसी न किसी स्तर पर आपराधिक मामला लंबित है। ऐसे मामलों में सबसे बड़ा डर यह रहता है कि कहीं पासपोर्ट रिन्यू न हो पाए। प्रशासनिक स्तर पर भी अक्सर यह धारणा बना दी जाती है कि केस लंबित होने का अर्थ है पासपोर्ट से वंचित होना। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने इसी भ्रम को स्पष्ट और निर्णायक रूप से दूर किया है।

मामले की पृष्ठभूमि क्या थी

इस मामले में याचिकाकर्ता एक भारतीय नागरिक था, जिसका पासपोर्ट वर्ष 2013 में जारी हुआ था और 2023 में उसकी वैधता समाप्त हो गई। इस दौरान उसके खिलाफ दो आपराधिक मामले लंबित थे, जिनमें एक एनआईए कोर्ट में और दूसरा दिल्ली की अदालत में विचाराधीन था। याचिकाकर्ता जमानत पर था और अदालतों ने शर्त लगाई थी कि वह बिना अनुमति भारत से बाहर नहीं जाएगा।

अदालतों द्वारा दी गई अनुमति

पासपोर्ट की वैधता समाप्त होने से पहले याचिकाकर्ता ने संबंधित अदालतों से अनुमति लेकर पासपोर्ट रिन्यू कराने का प्रयास किया। एनआईए कोर्ट ने सीमित उद्देश्य के लिए पासपोर्ट रिन्यू की अनुमति दी और शर्त रखी कि रिन्यू के बाद पासपोर्ट पुनः अदालत में जमा किया जाएगा। इसके बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने भी स्पष्ट किया कि दस वर्षों के लिए पासपोर्ट रिन्यू करने पर उसे कोई आपत्ति नहीं है।

पासपोर्ट कार्यालय ने क्यों इनकार किया

अदालतों की अनुमति के बावजूद क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय ने पासपोर्ट रिन्यू करने से मना कर दिया। उनका आधार पासपोर्ट अधिनियम की धारा 6(2)(f) था, जिसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही लंबित है, तो पासपोर्ट जारी या रिन्यू नहीं किया जा सकता। यहीं से असली कानूनी विवाद शुरू हुआ।

क्या धारा 6(2)(f) पूर्ण प्रतिबंध है

सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रश्न पर विस्तार से विचार किया। अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 6(2)(f) को पूर्ण प्रतिबंध के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता। पासपोर्ट अधिनियम की धारा 22 के तहत केंद्र सरकार को अपवाद देने की शक्ति प्राप्त है। इसी शक्ति के तहत वर्ष 1993 में GSR 570(E) अधिसूचना जारी की गई थी।

1993 की अधिसूचना का महत्व

इस अधिसूचना का उद्देश्य यह था कि जिन व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, उन्हें पूरी तरह पासपोर्ट से वंचित न किया जाए। यदि संबंधित आपराधिक अदालत अनुमति देती है और यह शर्त लगाती है कि व्यक्ति बिना अनुमति के विदेश नहीं जाएगा, तो पासपोर्ट प्राधिकरण को उस न्यायिक आदेश का सम्मान करना होगा।

पासपोर्ट और विदेश यात्रा में अंतर

सुप्रीम कोर्ट ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात स्पष्ट की कि पासपोर्ट रखना और विदेश यात्रा करना दो अलग कानूनी अवधारणाएँ हैं। पासपोर्ट होना अपने आप में विदेश जाने की अनुमति नहीं है। विदेश यात्रा की अनुमति केवल संबंधित अदालत ही देती है। इसलिए यह मान लेना कि पासपोर्ट मिलते ही व्यक्ति विदेश भाग जाएगा, एक गलत प्रशासनिक सोच है।

अनुच्छेद 21 और व्यक्तिगत स्वतंत्रता

अदालत ने दोहराया कि पासपोर्ट रखने और विदेश यात्रा करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है। इस अधिकार पर लगाया गया कोई भी प्रतिबंध उचित, न्यायसंगत और संतुलित होना चाहिए। प्रशासनिक प्राधिकरण न्यायालय द्वारा बनाए गए इस संतुलन को बिगाड़ नहीं सकते।

सजा, अपील और पासपोर्ट का संबंध

इस मामले में एक और महत्वपूर्ण पहलू यह था कि याचिकाकर्ता को एक मामले में सजा हुई थी, लेकिन उस सजा के खिलाफ अपील लंबित थी और सजा स्थगित थी। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसी स्थिति में धारा 6(2)(f) स्वतः लागू नहीं होती। ट्रायल का सामना कर रहा व्यक्ति और अपील में गया व्यक्ति, दोनों की कानूनी स्थिति अलग होती है।

सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निष्कर्ष

सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि पासपोर्ट रिन्यू करने से इनकार करना असंतुलित और अनुचित प्रतिबंध है। अदालत ने पासपोर्ट प्राधिकरण को निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता का पासपोर्ट दस वर्षों के लिए पुनः जारी किया जाए, बशर्ते वह अदालतों द्वारा लगाई गई सभी शर्तों का पालन करे।

आम नागरिकों के लिए इस निर्णय का संदेश

यह निर्णय उन सभी नागरिकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है जो किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। यह स्पष्ट करता है कि कानून का उद्देश्य नागरिक को दंडित करना नहीं, बल्कि न्याय और संतुलन बनाए रखना है। केवल लंबित मामला किसी के मौलिक अधिकारों को समाप्त नहीं कर सकता।

निष्कर्ष: सही समय पर सही कानूनी सलाह

यदि आप या आपके परिवार का कोई सदस्य पासपोर्ट, आपराधिक कार्यवाही, जमानत, कोर्ट मैरिज या संवैधानिक अधिकारों से जुड़ी किसी प्रशासनिक समस्या का सामना कर रहा है, तो सही समय पर सही कानूनी कदम उठाना बेहद जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय नागरिकों की स्वतंत्रता और अधिकारों की मजबूत ढाल है।

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एक्ट ऑफ गॉड हादसा, आपदा या अपराध ,कानून क्या कहता है, सुप्रीम कोर्ट ने किया स्पष्ट

प्राकृतिक आपदा और आपराधिक जिम्मेदारी पर सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय

प्राकृतिक आपदाओं के दौरान होने वाली दुखद घटनाओं के बाद अक्सर यह सवाल उठता है कि आखिर आपराधिक जिम्मेदारी किस पर तय की जाएगी। क्या हर हादसे के लिए किसी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी को दोषी ठहराया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के इस महत्वपूर्ण निर्णय ने कानून की स्थिति को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है। यह फैसला भावनाओं पर नहीं बल्कि तथ्यों, साक्ष्यों और कानूनी सिद्धांतों पर आधारित है।

मामले की पृष्ठभूमि क्या थी

वर्ष 2018 में चेन्नई ट्रेकिंग क्लब द्वारा महिला दिवस के अवसर पर एक ट्रेकिंग कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस ट्रेक में लगभग 27 लोग शामिल थे और यह ट्रेक कोलुक्कुमलाई से कुरंगनी तक तय किया गया था।

अगले दिन अचानक पूरे क्षेत्र में भीषण जंगल की आग फैल गई। तेज हवा के कारण आग तेजी से फैली और ट्रेकिंग कर रहे लोग इसकी चपेट में आ गए। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में कई लोगों की जान चली गई।

फॉरेस्ट रेंजर पर क्या आरोप लगाए गए

घटना के बाद फॉरेस्ट रेंजर पर गंभीर आपराधिक धाराओं में मामला दर्ज किया गया। आरोप यह था कि उन्होंने ट्रेकिंग की अनुमति दी, शुल्क लिया और गाइड उपलब्ध कराया।

आईपीसी की धारा 304 पार्ट II, 326, 338 और 304A जैसी धाराएं लगाई गईं, जो गैर-इरादतन हत्या और लापरवाही से मृत्यु से संबंधित हैं।

प्राकृतिक आपदा और आपराधिक लापरवाही में अंतर

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जंगल की आग एक प्राकृतिक आपदा थी, जिसे कानून की भाषा में vis major या act of God कहा जाता है।

ऐसी स्थिति में तब तक आपराधिक जिम्मेदारी तय नहीं की जा सकती, जब तक यह साबित न हो जाए कि आरोपी ने जानबूझकर कोई लापरवाही या अपराध किया।

सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट कानूनी दृष्टिकोण

अदालत ने कहा कि केवल किसी पद पर होने से कोई व्यक्ति स्वतः अपराधी नहीं बन जाता। आईपीसी की धारा 304 पार्ट II तभी लागू होती है जब मृत्यु का ज्ञान होते हुए कार्य किया गया हो।

इस मामले में ऐसा कोई प्रमाण नहीं था कि फॉरेस्ट रेंजर को पहले से आग की जानकारी थी या उन्होंने जानबूझकर लोगों को खतरे में डाला।

ट्रायल और हाई कोर्ट के आदेश क्यों रद्द हुए

ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट ने पहले ट्रायल चलाने की अनुमति दी थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब प्रथम दृष्टया ही अपराध नहीं बनता, तो किसी व्यक्ति को मुकदमे के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।

यह CrPC की धारा 227 के सिद्धांत को भी मजबूत करता है, जिसका उद्देश्य निर्दोष व्यक्ति को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाना है।

सरकारी कर्मचारियों और आम जनता के लिए संदेश

यह निर्णय सरकारी कर्मचारियों के लिए बड़ी राहत है। यदि हर दुर्घटना में अधिकारियों पर आपराधिक केस दर्ज किए जाएंगे, तो वे अपने कर्तव्य निडर होकर नहीं निभा पाएंगे।

साथ ही यह फैसला आम जनता को भी यह समझाता है कि हर दुखद घटना के पीछे किसी व्यक्ति को अपराधी ठहराना न्यायसंगत नहीं होता।

इस निर्णय से मिलने वाले मुख्य कानूनी सिद्धांत

पहला, प्राकृतिक आपदा को आपराधिक कृत्य नहीं माना जा सकता। दूसरा, आपराधिक धाराएं तभी लगेंगी जब लापरवाही या आपराधिक मंशा साबित हो।

तीसरा, केवल सरकारी पद पर होना अपराध का आधार नहीं बनता। कानून संतुलन और न्याय के सिद्धांतों पर चलता है।

निष्कर्ष और कानूनी मार्गदर्शन

यदि आपके या आपके किसी परिचित के खिलाफ किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा के बाद आपराधिक मामला दर्ज कर दिया गया है, तो यह निर्णय आपके लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

सही समय पर सही कानूनी सलाह लेने से बड़ी राहत मिल सकती है। Delhi Law Firm पूरे भारत में आपराधिक, पारिवारिक और Court Marriage, कानूनी मामलों में सहायता प्रदान करता है।

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